आज समाज को बुद्धिमान दलालों की नहीं सच्चे समाज सुधारकों की जरुरत है - डगराराम पँवार नवनीत  

आज समाज को बुद्धिमान दलालों की नहीं सच्चे समाज सुधारकों  की जरुरत है - डगराराम पँवार  नवनीत  

"आज समाज को बुद्धिमान दलालों की नहीं सच्चे समाज सुधारकों " की जरुरत है = डगराराम पँवार, "नवनीत् "         ====================


इस बात को मैंने कई जगहों पर और कई मंचों पर कहा है कि जिस समाज में बुद्धिजीवी वर्ग नहीं होता है, वह समाज हमेशा पीछे रहता है। भलेई वह कितना ही संपन्न क्यों न हो या संख्या बल में राजनीति में भी कितना ही क्यों न हो। समाज का उत्थान हमेशा समाज सुधारकों से होता है, जिनकी दृष्टि समाज का बुद्धिजीवी वर्ग होता है, वह तय करता है। यहां वर्ग की बात कही है, किसी इक्के दुक्के की नहीं।
                     जो लोग यह सोचते है कि हमारी जाति का राजनेता बना देने से हमारा कल्याण हो जाएगा। वे गलत दृष्टि को पकड़े हुए है। राजनीति सुविधाओं के बंटवारे का खेल है। राज्य की जो सुविधाएं, लाभ और विशेषाधिकार है, उनके बंटवारे की बात है और एक होशियार राजनेता राज्य की उन सुविधाओं, लाभों और विशेषाधिकारों को अपने वर्गों की तरफ मोड देता है। इससे ज्यादा राजनेता का कोई महत्व नहीं है। अगर वह वास्तव में बुद्धिजीवी है तो इसमें इजाफा करवा सकता है, लेकिन समाज को दृष्टि नहीं दे सकता है। उसकी सोच और चेतना राजनीति के इर्द गिर्द होती है, जो पार्टियों से बंधी होती है। पार्टियों का अपना बुद्धिजीवी वर्ग होता है, जो उनकी भूमिका तय करता है, वे स्वतंत्र भूमिका में हो ही नहीं सकते है। इसलिए राजनेता को बुद्धिजीवी कहना ही विचार की अतिशय दरिद्रता है। राजनेताओं के पिछले 75 सालों के चरित्र से आप यह बात भली भांति समझ सकते है। बुद्धिजीवी होना तो दूर रहा, वे अपने वर्गों को लाभों और विशेषाधिकारों का उचित फायदा प्राप्त कराने में भी नाकाम रहे है। आपकी जाति और वर्ग के अलावा दूसरी जाति और वर्गों से बने राजनेताओं से उनके वर्गों और उन जातियों को पहुंची सुविधाएं और लाभों की तुलना अपने लाभों और सुविधाओं से करके यह जान सकते है। (आरक्षण की पंचैरी नौकरियों को बीच में नहीं उछाले, यह इन राजनेताओं की बुद्धिमता से नहीं होता है और न हुआ है। उसका अलग इतिहास है)। आशय यह है कि राजनीति वे बना वर्ग किसी समाज या जाति का बुद्धिजीवी वर्ग नहीं होता है। जिनको इस तरह का भ्रम है, वे इस भ्रम को निकाल दें। इस भ्रम के चलते यह जाति पिछली एक शताब्दी से पिछड़ी और पिछलग्गू बनती जा रही है और भ्रम को कोई इलाज नहीं है।l
                       इससे भी बड़ा एक दूसरा भ्रम यह है कि यह जाति यह समझती है कि अगर उनकी जाति से कोई बड़ा अफसर बन गया तो वह बुद्धिजीवी हो गया। या किसी ने बड़ी बड़ी डिग्रियां ले ली तो वह बुद्धिजीवी हो गया। यह भ्रम आम जनता में अपने आप नहीं फैला है, बल्कि इन लोगों की बुद्धिमता से फैला है। अवसर का मिलना और बुद्धि का संयोग होना अलग बात है और बुद्धिजीवी होना अलग बात है। ऐसे लोगों को ज्यादा से ज्यादा आप शिक्षित कह सकते है, अधिकारी कह सकते है, उन्हें बुद्धिजीवी कदापि नहीं कह सकते है। कोई एक अच्छा एक्सपर्ट इंजीनियर है, किसी फील्ड का जानकार डॉक्टर है या किसी विषय का ज्ञाता है, तो उनके ऐसा होने से ही वह बुद्धिजीवी नहीं हो जाता है। वह विषय विशेषज्ञ हो सकता है, वह किसी फील्ड का, विषय का विद्वान हो सकता है, लेकिन वह बुद्धिजीवी नहीं कहा जा सकता है। अफसोस इस बात का है कि इन 'वर्ग हीन समाजों' या जातियों में अफसर बने लोग और उच्च शिक्षित लोग छद्मता का आवरण ओढ़ कर अपने लोगों को इधर से उधर ले जाते रहते है, जिसका कोई तात्कालिक लाभ प्राप्त हो या न हो दीर्घकालीन रूप से उस समाज को नुकसान पहुंचाते है। ये स्वयंभू बुद्धिजीवी बने होते है।  ऐसे लोग समाज को अपनी सरकारी सेवा निवृति के बाद गाँव, शहरो अपनी मूर्खता से समाज बंधु ओ को भ्रमित कर ने में कोई कसर नहीं छोड़ते है ये लोग समाज में बुद्धिजीवी वर्ग न तो पैदा होने देते है और न बनने देते है। इनकी दृष्टि दिखने में व्यापक होगी लेकिन संकुचित और उतनी ही होगी, जितना उन्होंने अपने अनुभव और बुद्धि में देखा या परखा है। उससे बाहर ये सोच ही नहीं सकते है।
                      पद और प्रतिष्ठा से इनका समाज में मान होता है। जिसका ये आनंद लेते है और समाज उनको इसलिए मान और सम्मान देता है, क्योंकि सदियों से जनता में यह संस्कार बना हुआ कि बड़ा आदमी है तो सही ही कहता होगा, सही ही सोचता होगा। इसी में हमारा भला है। और भी कई तरह के रुग्ण संस्कार है....! आम जनता भी लोकतंत्र की मर्यादा को नहीं जानती है, इसलिए ये लोग लोकतंत्र के नाम पर जनता की आंखों में धूल झोंकते है। इसमें जो चतुर और चालक होते है, वे लंबे समय तक समाज में बने रहते है। पढ़ाई से, उच्च शिक्षा से, नौकरी के पद आदि से निश्चित रूप से इनमें तर्क बुद्धि का विकास आम जनता से ज्यादा होता है। इसलिए आम तौर पर  कम तर्क बुद्धि रखने वाली आम जनता के ये चहेते बने रहते है। लेकिन ये बुद्धिजीवी तो कतई नहीं होते। पिछले 70 सालों में इन जातियों में एक भी बुद्धिजीवी पैदा नहीं हुआ, बुद्धिजीवी वर्ग बनना तो दूर की बात है। कोर्ट में बहुत से वकील होते है। एक ही मामले को भिन्न भिन्न वकील लड़ते है, जीतता वही वही वकील है, जिसके पास सामने वाले से ज्यादा तीक्ष्ण बुद्धि है। यही हाल इन जातियों में आम लोगों और पढ़े लिखे और अफसरों के बीच है। लेकिन याद रहे बुद्धिजीवी नहीं होते है, चिंतन मनन इनका काम नहीं होता है नौकरी या पेश इनकी आजीविका होती है। ये पेशगार लोग होते है। अपने हितों के विपरीत कभी नहीं जाते है और न जा सकते है, क्योंकि ये बुद्धिजीवी नहीं होते है या तो अफसर होते है या अधिकारी होते है या विद्वान-विशेषज्ञ या शिक्षित होते है।
                       अगर किसी समाज को, किसी जाति को आगे बढ़ना है तो उसे बुद्धिजीवी पैदा करना पड़ेगा। बुद्धिजीवियों का वर्ग पैदा करना होगा। उसके बिना कोई समाज आगे नहीं बढ़ सकता है। आर्थिक समृद्धि, राजनैतिक लाभ और प्रगति का तुरंत लाभ आदि हो सकता है, लेकिन वह नाकाफी होता है। जिन समाजों में अपना बुद्धिजीवी वर्ग है, राजनीति का वर्ग है और समाज सुधारकों का वर्ग है। वह समाज हमेशा अग्रणीय भूमिका में रहता है। बुद्धिजीवी वर्ग हमेशा राजनीति वर्ग से और अफसर आदि वर्ग से अलग ही होता है। इन्हें न तो मिलाना चाहिए और न उन्हें एक ही समझना चाहिए। एक बुद्धिजीवी वर्ग की सलाह और छत्रछाया में जब एक प्रगतिशील समाज , चाहे उसकी राजनीति हो या लाभ, चलता है, तो उत्तरोत्तर उसकी प्रगति होती है। 
डगराराम पँवार,"नवनीत,"प्रदेश अध्यक्ष, राष्टीय दलित साहित्य अकादमी राजस्थान